रविवार का सदुपयोग – अंश- बाईसवां

 
रविवार का सदुपयोग 
 
साप्ताहिक सूक्ष्म ब्लॉग | संवाद से परिवर्तन का प्रयास
 
अंश- बाईसवां 
 
भेदभाव – 21वीं सदी में अभिशाप 
 
भारत देश हमेशा विविधता में एकता के लिए अपनी पहचान रखता है और यहां हर जाति, धर्म, समुदाय के लोग निवास करते हैं । सदियों से आपसी भाईचारे सौहार्द की भावना रही है , लेकिन पिछले कुछ दशकों से समाज में जाति , वर्ण , धर्म, आर्थिक आधार पर भेदभाव करने की जो मानसिक विकृति आई है, उसने देश की जड़ों को कमजोर किया है।
 
भेदभाव न केवल सामाजिक बुराई है, बल्कि एक मानसिक विकृति है। यह कहना गलत होगा कि जाति, वर्ण, धर्म के आधार पर भेदभाव की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। यदि रामायण काल की बात करें तो प्रभु श्री राम ने दलित आदिवासी शबरी के झूठे बेर खाने से कभी परहेज नहीं किया। श्री कृष्ण राजा महाराजाओं के निमंत्रण को दरकिनार करते हुए सामान्य ब्रह्मण विदुर के घर जाकर भोजन किया जो प्रमाण देता है आर्थिक भेदभाव भी हमारी संस्कृति का कभी हिस्सा नहीं रहा है।
 
देश में ब्रिटिश शासन काल के दौरान अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो की नीति पर काम करना शुरू किया और सबसे पहले  उन्होंने जाति, धर्म, वर्ण के आधार पर भेदभाव का जहर हमारे मन में भर दिया,  तभी से धीरे-धीरे यह कुरीति आगे बढ़ती गई, आज भी हम उस मानसिकता से नहीं उभर पाए हैं।
 
व्यक्ति हमेशा अपने कर्मों से महान होता है ना कि जन्म से। प्रतिभाशाली व्यक्ति अपनी पहचान अपने आप बनाता है।  आज जहां पूरा देश 21वीं शताब्दी में पहुंच चुका है वही अभी भी कई लोगों की मानसिकता 19वीं सदी से आगे नहीं बढ़ पाई है। आज जब हम जाति, धर्म , वर्ण और आर्थिक आधार पर भेदभाव करने की बात सुनते हैं तो मन को बहुत पीड़ा भी होती है। 
 
भारत युवाओं का देश है और आजादी के 75 वर्ष का जश्न मनाया जा रहा है। देश की इस अमूल्य आजादी को दिलाने में हर जाति, वर्ग ,धर्म के स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी, ऐसे में हमें भी आजादी के इस अमृत महोत्सव की पावन बेला पर भेदभाव की भावना को त्यागने का संकल्प लेना चाहिए। 
 
1. क्या आप भी इस बात से सहमत है कि भेदभाव की भावना से हमारा देश लगातार पिछड़ रहा है ?
 
2. क्या आप इस बात से सहमत हैं कि भेदभाव की यह कुरूति अब समाप्त होनी चाहिए ?
 
हृदय की कलम से ! 
 
आपका 
 
– धनंजय सिंह खींवसर