ज़ूफ़िलिस्ट

खींवसर में समय की शिला पर उत्कीर्ण पशुप्रेमियों की कालजयी विरासत

 

खींवसर राजघराने के पशुप्रेमियों का पशुओं के प्रति नज़रिया मनुष्यों और पशुओं के बीच के प्रेम की गहरी और स्थायी कड़ी का सुंदर उत्सव है। श्री धनंजय सिंह खींवसर और उनकी पत्नी श्रीमती मृगेशा कुमारी सिंह खींवसर की करुणामयी नेतृत्व क्षमता और समर्पित प्रबंधन ने इस संबंध को न केवल संरक्षित किया है बल्कि इसे खींवसर परिवार की विरासत का केंद्रबिंदु भी बनाया है।

खींवसर परिवार द्वारा शुरू की गई पहलों जैसे ‘गौ-सेवा परियोजना’ और ‘गिर नस्ल की गायों के संरक्षण’ से लेकर उनके शाही शिकारी कुत्तों की देखभाल तक के समर्पित कार्य सिर्फ दयालुता के कार्य नहीं हैं बल्कि ये उन विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति हैं जो हर जीव और उसके जीवन को पवित्र मानते हैं और उसके प्रति सम्मान का भाव रखते हैं। ये  विचार खींवसर परिवार की विरासत की विभिन्न कड़ियों को जोड़कर एक ऐसी सशक्त गाथा बनाते हैं जो अतीत का सम्मान करते हुए भविष्य की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती है।

 

जैसे-जैसे खींवसर परिवार अपनी इस धरोहर को पोषित करता जा रहा है, वैसे-वैसे उनके पशुप्रेमी दृष्टिकोण की यह कहानी उनके गौरवशाली इतिहास का अभिन्न हिस्सा बनती जा रही है। यह करुणा की शक्ति और प्राकृतिक जीव जगत के संरक्षण के महत्व का प्रमाण है जो हमें यह याद दिलाता है कि मनुष्य और पशुओं के बीच का बंधन मानवता के सर्वाधिक गहन और स्थायी संबंधों में से एक है।

पशुप्रेमी दंपती : पशुओं के पवित्र जीवन के महान संरक्षक

खींवसर की भव्यता में जहाँ इतिहास और विरासत आपस में गुंथे हुए हैं, मानव और पशु के बीच का बंधन एक पवित्र अनुबंध के रूप में देखा जाता है। यह संबंध पीढ़ियों से पोषित है और यह  श्री धनंजय सिंह खींवसर और उनकी पत्नी श्रीमती मृगेशा कुमारी सिंह खींवसर के जीवन और विरासत में सबसे स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। सभी जीवों के संरक्षण और रक्षा के प्रति उनकी निष्ठा खींवसर वंश की महान परंपराओं का एक जीवंत प्रमाण है।

करुणा की यात्रा:

भीषण आपदा के बीच श्री धनंजय सिंह खींवसर की गौ-सेवा

 

राजस्थान की धरती पर जहाँ गायों को जीवन और पोषण का प्रतीक माना जाता है, वहाँ लम्पी(गौवंश में त्वचा का रोग) का प्रकोप महज़ एक संकट नहीं था बल्कि यह एक महत्वपूर्ण दायित्वबोध की जागृति हेतु पुकार थी। यह रोग जिसने ग्रामीण क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित किया, अनगिनत समुदायों की आजीविका की कड़ियों को काटने डर उपस्थित कर रहा था। इस विकट परिस्थिति में श्री धनंजय सिंह खींवसर ने अपनी अदम्य संकल्प शक्ति और गहन संवेदनशीलता के साथ इस चुनौती का दृढ़ता से सामना किया।

 

‘गौ-सेवा परियोजना’ की अगुवाई करते हुए श्री धनंजय ने खींवसर फाउंडेशन की समस्त शक्ति को इस भयावह संकट के प्रभावी समाधान हेतु जुटाया। आपदा की इस घड़ी में उनका नेतृत्व केवल संकट प्रबंधन नहीं था बल्कि यह गौ वंश के प्रति गहरी करुणा का भाव था जो खींवसर परिवार की समस्त जीवों के कल्याण के प्रति दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है। अथक प्रयासों और प्रभावी योजना के माध्यम से इस परियोजना ने न केवल रोग के प्रसार को रोका बल्कि उन असंख्य किसानों और चरवाहों में आशा भी जगाई जिनकी आजीविका इन पवित्र पशुओं पर निर्भर थी।

‘गौ-सेवा पहल’ इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक क्रियाकलापों से जोड़कर कितनी बड़ी चुनौतियों का समाधान किया जा सकता है। यह एक ऐसी विरासत है जो भूमि और उसके निवासियों के प्रति सच्चे सेवा भाव की गहरी समझ का प्रतीक है। उल्लेखनीय है कि मारवाड़ के खींवसर क्षेत्र में 15,000 से अधिक गायों का इलाज किया गया।

.

तत्काल राहत के अलावा परियोजना इस परियोजना में भविष्य में होने वाले रोगों के प्रकोपों से अपनी गायों की रक्षा के लिए किसानों और पशुपालकों को जागरूक करने पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। किसानों के लिए कार्यशालाओं और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया गया जिसमें उन्हें पशुपालन के सर्वोत्तम तरीके व प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया गया। इसमें स्वच्छता, नियमित टीकाकरण और लक्षणों की प्रारंभिक पहचान को प्राथमिकता दी गई। श्री धनंजय सिंह के प्रयासों ने बीमारी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, मृत्यु दर को घटाने में योगदान दिया और क्षेत्र में पशुओं की संख्या की पुनः अभिवृद्धि को सुनिश्चित किया।

स्टिवार्ड ऑफ लेगेसी

श्रीमती मृगेशा कुमारी सिंह खींवसर: भारत की जीवंत विरासत मानी जाने वाली गिर गायों की संरक्षिका

 

जिस प्रकार श्री धनंजय सिंह खींवसर ने राजस्थान में गायों की देखभाल की बागडोर संभाली है, उसी प्रकार श्रीमती मृगेशा कुमारी सिंह खींवसर ने गिर गाय के संरक्षण के लिए स्वयं को समर्पित किया है। गिर गाय की नस्ल अति प्राचीन और माता के समान पूजनीय और प्रतिष्ठित है। गिर गाय अपनी समृद्ध आनुवंशिक विरासत और पारंपरिक खेती में महत्वपूर्ण भूमिका के कारण पशुधन से कहीं अधिक मानी जाती है। यह भारत की कृषि-आत्मा का एक जीवंत प्रतीक है।

 

श्रीमती मृगेशा जी द्वारा गिर गायों के संरक्षण के लिए अपने पैतृक निवास राजकोट में किया गया कार्य इस प्रजाति के पर्यावरणीय और आर्थिक महत्व को समझने का प्रेमपूर्ण प्रयास है। उनकी लगन ने सुनिश्चित किया है कि यह प्राचीन नस्ल आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के बावजूद फलेगी-फूलेगी। गिर गायों की शुद्ध नस्ल की रक्षा के लिए उनका समर्पण न केवल कृषि के लिए सेवा है बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक पहचान व धरोहर के संरक्षण में भी एक महान योगदान है।

 

श्रीमती मृगेशा जी के ममतामयी हाथों में गिर गाय केवल एक संरक्षण का विषय न होकर यह स्थिरता, निरंतरता, भूमि और उसके लोगों के बीच स्थायी स्नेहिल बंधन का प्रतीक है। उनका काम खींवसर परिवार की प्राकृतिक जगत को सुरक्षित रखने की व्यापक प्रतिबद्धता का प्रतिबिंब है। यह ऐसी प्रतिबद्धता है जो पीढ़ियों से चली आ रही देखभाल और संरक्षण के मूल्यों की अनुगूंज के साथ गहराई से जुड़ी हुई है।

 

कई स्वदेशी नस्लों की तरह गिर गाय को भी क्रॉसब्रीडिंग प्रथाओं, बदलते कृषि पैटर्न और उपेक्षा के खतरों का सामना करना पड़ा है जिससे इसकी शुद्ध वंशावली में गिरावट आई है। श्रीमती मृगेशा जी इस दिशा में भी लगातार प्रयासरत हैं ताकि एक बार पुनः गिर गाय की शुद्ध वंशावली का संवर्धन किया जा सके।

कनाइन अरिस्टोक्रेसी: ख़ीवसर हाउंड्स केनेल-एक जीवित विरासत

ख़ीवसर हाउंड्स केनेल शाही कुत्तों का एक समूह मात्र नहीं है, यह गौरवशाली इतिहास और कुलीनता के साथ ही मानवों और उनके वफादार साथियों के बीच गहरे संबंध का एक जीवंत अभिलेख है। इस आधुनिक केनेल में रहने वाली प्रत्येक नस्ल परिवार की गौरवशाली गाथा और उन शाही गुणों को संरक्षित करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो इन प्यारे और वफादार प्राणियों को परिभाषित करते हैं। यह केनेल खींवसर के भव्य किले के परिसर में स्थित है। इस केनेल की जलवायु नियंत्रित है और इसमें चार पैरों वाले मित्रों के आराम के लिए सभी आधुनिक सुविधाएं हैं और यहाँ कुत्तों की कुछ अनूठी नस्लें परिवार के बच्चों की तरह पाली-पोसी जाती हैं।

 

खींवसर परिवार और इन शाही नस्लों के बीच का संबंध वीरता, निष्ठा और राजसी कुलीनता के इतिहास में गहनता से निहित है। खींवसर के शिकारी कुत्ते शाही परिवारों के साथी और संपत्ति के रक्षक रहे हैं। ये जीवन के संरक्षण के प्रति परिवार की स्थायी प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं।

सिंबा और साहिबा: राजसी ग्रेट डेन

सिंबा और साहिबा खींवसर के शाही परिसर के विशाल ग्रेट डेन हैं जो अनुग्रह और शक्ति का प्रतीक हैं। ये दयालु और विशालकाय जीव शाही मुद्रा और प्रभावशाली कद के पालतू जानवर ही नहीं हैं, वे खींवसर परिवार की उस राजसी आत्मा के प्रतीक हैं जो इस परिवार को परिभाषित करती है। 

 

ग्रेट डेन जिन्हें अक्सर “कुत्तों का अपोलो” कहा जाता है, अपने विशाल आकार, शक्तिशाली शरीर और स्नेही स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। डरावने प्रतीत होने के बावजूद वे सौम्य और प्यार करने वाले होते हैं जो उन्हें परिवारों के लिए आदर्श साथी बनाते हैं। सिंबा और साहिबा इन गुणों को पूरी तरह से अपनाते हैं और खींवसर के निवासियों को सुरक्षा और साथ दोनों प्रदान करते हैं।

 

सिंबा और साहिबा की खींवसर किले के परिसर में उपस्थिति केवल सुरक्षा से ही संबंधित नहीं है बल्कि एक लंबी परंपरा की निरंतरता का प्रतीक भी है। ग्रेट डेन ऐतिहासिक रूप से शाही परिवारों और उच्च वर्ग से जुड़े रहे हैं। वे अक्सर कला और साहित्य में अपने मालिकों के वफादार रक्षकों के रूप में चित्रित किए जाते हैं। ख़ीवसर में सिंबा और साहिबा इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, उनकी हर क्रिया गरिमा और अनुग्रह का प्रतिबिंब है जो लंबे समय से खींवसर राजवंश की पहचान रही है।

थंडर:
चौकस बेल्जियन मालिनोइस

थंडर खींवसर राजवंश का बेल्जियन मालिनोइस (एकमात्र कार्यशील नस्ल का कुत्ता) बुद्धिमत्ता, चपलता और निष्ठा का आदर्श उदाहरण है। अपनी तीव्र संवेदनाओं और अडिग समर्पण के लिए जाने जाने वाले बेल्जियन मालिनोइस को अक्सर पुलिस और सैन्य कार्यों जैसी भूमिकाओं में नियोजित किया जाता है, जहां उच्च स्तर की कुशलता और सतर्कता की आवश्यकता होती है। हालांकि थंडर खींवसर में एक अलग तरह की भूमिका रक्षक और साथी के रूप में निभाता है।

 

बेल्जियन मालिनोइस को अपने पालकों के साथ गहरे प्रेमपूर्ण रिश्ते बनाने की क्षमता के लिए जाना जाता है और थंडर इस बात का अपवाद नहीं हैं। खींवसर परिवार के प्रति उसकी निष्ठा पूर्ण है, और किले के परिसर में उसकी उपस्थिति परिवार की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता की लगातार याद दिलाती है। थंडर की तीव्र संवेदनाएं और तेज़ प्रतिक्रियाएं उसे परिवार का एक अमूल्य सदस्य बनाती हैं क्योंकि वह यह सुनिश्चित करता है कि परिसर सभी निवासियों के लिए एक सुरक्षित आश्रय बना रहे।

 

उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारियों के अलावा थंडर एक प्रिय साथी भी हैं जिसे उसके स्नेही स्वभाव और जिंदादिल व्यवहार के लिए जाना जाता है। उनकी रक्षक और मित्र के रूप में दोहरी भूमिका खींवसर परिवार द्वारा अपने जानवरों के साथ बनाए गए अद्वितीय संबंध को दर्शाती है जहाँ प्रेम और निष्ठा उनके जीवन के हर पहलू में समाहित है।

 

अलेक्जेंड्रा और रास्पुतिन: शाही बोरज़ॉय

अलेक्जेंड्रा और रास्पुतिन ख़ीवसर के बोरज़ॉय, परिसर के सभी हाउंड्स में सबसे प्रतिष्ठित हैं। ये सुरुचिपूर्ण प्राणी अपने पतले शरीर और बहती हुई कोट के साथ रूस के ज़ारों की अदालतों को सजाने वाले शाही हाउंड्स के वंशज हैं। बोरज़ॉय जिसे रशियन वुल्फहाउंड भी कहा जाता है, एक ऐतिहासिक नस्ल है जो शाही परिवारों के साथ जुड़ी हुई है। ये अपनी गरिमा, गति और सौम्य स्वभाव के लिए जानी जाती है।

 

बोरज़ॉय की उत्पत्ति रूस से हुई जहां इन्हें शाही परिवारों द्वारा भालू के शिकार और अन्य खेलों के लिए पाला गया था। इनका नाम रूसी शब्द “बोरज़ाई” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है- “तेज़”। यह ‘तेज़ शब्द’ उनकी अद्भुत गति और चपलता को दर्शाता है। हालांकि, बोरज़ॉय केवल शिकारी कुत्ते ही नहीं थे, वे प्रतिष्ठा और परिष्कार के प्रतीक थे। अक्सर रूसी शाही परिवारों के साथ देखे जाते थे तथा अनगिनत कला और साहित्य के कार्यों में उनका चित्रण किया जाता था।

 

अलेक्जेंड्रा और रास्पुतिन इस विरासत को अपने साथ लेकर चलते हैं। खींवसर के शाही परिसर में उनकी उपस्थिति का प्राचीनकालीन भव्यता से जीवंत संबंध है। बोरज़ॉय की कहानी विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने की है। 1917 की रूसी क्रांति के दौरान हजारों बोरज़ॉय को पुरानी शाही परंपरा का प्रतीक मानकर उनकी हत्या कर दी गई। 1917 की क्रांति से पूर्व बोरज़ॉय को रूस में पाला, खरीदा या बेचा नहीं जा सकता था। रूसी ज़ार और गिने चुने शाही परिवारों का इस नस्ल पर विशेषाधिकार था और बोरज़ॉय को वे केवल उपहार के रूप में दे सकते थे। इससे बोरज़ॉय की संख्या बहुत कम हो गई। आज उनका अस्तित्व इन अद्भुत प्राणियों की सहनशीलता और उनके वंश को संरक्षित करने के अनवरत प्रयासों का प्रमाण है।

 

खींवसर में अलेक्जेंड्रा और रास्पुतिन केवल पालतू जानवर नहीं हैं, वे एक समृद्ध और जटिल इतिहास का साकार रूप हैं जिन्हें उनकी सुंदरता के लिए ही नहीं बल्कि उनके प्रतिनिधित्व के लिए भी सराहा जाता है। उनका हर एक आंदोलन खींवसर के शाही परिवार की सुरुचि और सज्जनता की याद दिलाता है। इनका भारत में पुनः आगमन एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पुनरुद्धार है और इसीलिए वे इतने लंबे समय के बाद देश में लौटने वाले पहले बोरज़ॉय बन गए हैं।

 

खींवसर के शिकारी कुत्तों का सच्चा सार उनकी भौतिक परिस्थितियों में नहीं बल्कि उनके मानव साथियों के साथ संबंध में समाहित है। यह संबंध आपसी सम्मान, समझ और प्रेम में निहित है। पारंपरिक मालिक और पालतू जानवर की भूमिकाओं से कहीं आगे एक ऐसा संबंध है जो गहरा और चिरस्थायी है।

 

 

शाही साथी: प्रेम और निष्ठा का वसीयतनामा

ख़ीवसर में ये जानवर केवल परिसर के निवासी नहीं हैं, ये परिवार के प्यारे सदस्य हैं। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य उन गुणों को अंगीकार करता है जो खींवसर की विरासत का आधारस्तम्भ रहे हैं। ये गुण हैं निष्ठा, साहस और गरिमा। इन शाही साथियों की खूब देखभाल की जाती है और भरपूर सम्मान दिया जाता है। इन जीवों की भलाई एक प्राथमिकता है जो परिवार के सभी सदस्यों की जीवन की पवित्रता में गहरी आस्था को दर्शाती है।

 

खींवसर का शाही परिसर अपने आप में एक अभयारण्य है जहाँ   मूल्य हर दिन जीवित रहते हैं, श्वास लेते हैं और साकार होते हैं। यहां प्रत्येक जानवर की देखभाल की जाती है और पूरा ध्यान रखा जाता है। उनकी सुविधा सुनिश्चित करने के लिए डिजाइन की गई आधुनिक सुविधाएं तथा खींवसर के शाही परिवार और उनके पालतू जानवरों के बीच स्नेहिल वार्तालाप.. ये सभी एक ऐसी परंपरा का उदघोष करते हैं जो खींवसर की भांति ही प्राचीन है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ प्रेम और निष्ठा केवल शब्द नहीं बल्कि जीवन की एक पद्धति है जो मानवों और जानवरों के बीच के घनिष्ठ संबंध की साक्षी है।

 

अपने जानवरों की देखभाल में खींवसर परिवार उस प्रेम और निष्ठा की विरासत को बनाए रखता है जो उनके वंश को सदियों से परिभाषित करता है। यह एक विरासत है जो पृथ्वी और इसके सभी प्राणियों के सच्चे रक्षक के रूप में भविष्य की पीढ़ियों में स्थानांतरित होगी। 

गैलरी